पति-पत्नी और तलाक को लेकर सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बेंच ने किया अहम फैसला

कुछ शर्तों के तहत आपसी सहमति से तलाक के लिए छह महीने की प्रतीक्षा अवधि खत्म

नई दिल्ली (एप ब्यूरो)

देश की सर्वोच्च अदालत सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक बेंच ने पति-पत्नी और तलाक को लेकर अहम फैसला सुनाया है। कोर्ट ने कहा है कि अगर पति-पत्नी के रिश्ते टूट चुके हों और सुलह की गुंजाइश ही न बची हो, तो वह भारत के संविधान के आर्टिकल 142 के तहत बिना फैमिली कोर्ट भेजे तलाक को मंजूरी दे सकता है। इसके लिए छह महीने का इंतज़ार अनिवार्य नहीं होगा। कोर्ट ने कहा कि उसने वे फैक्टर्स तय किए हैं जिनके आधार पर शादी को सुलह की संभावना से परे माना जा सकेगा। इसके साथ ही कोर्ट यह भी सुनिश्चित करेगा कि पति-पत्नी के बीच बराबरी कैसे रहेगी। इसमें मेंटेनेंस, एलिमनी और बच्चों की कस्टडी शामिल है। यह फैसला जस्टिस एसके कौल, जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस एएस ओका और जस्टिस जेके माहेश्वरी की संविधान पीठ ने सुनाया। सुप्रीम कोर्ट की तरफ से कुछ शर्तों के तहत आपसी सहमति से तलाक के लिए छह महीने की प्रतीक्षा अवधि खत्म करने पर महिला आयोग ने खुशी व्यक्त की है। राष्ट्रीय महिला आयोग का कहना है, कि यह फैसला महिलाओं को जीवन में आगे बढ़ने का मौका देगा। इस मुद्दे को एक संविधान पीठ को यह विचार करने के लिए भेजा गया था कि क्या हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13बी के तहत आपसी सहमति से तलाक की प्रतीक्षा अवधि को माफ किया जा सकता है। हालांकि, खंडपीठ ने यह भी विचार करने का फैसला किया कि शादी में सुलह की गुंजाइश ही ना बची हो तो विवाह को खत्म किया जा सकता है।

संविधान पीठ के पास यह मामला डिवीजन बेंच ने 29 जून 2016 को पांच जजों की संविधान पीठ को रेफर किया था। पांच याचिकाओं पर लंबी सुनवाई के बाद बेंच ने 20 सितंबर 2022 को अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था। अदालत ने कहा था कि सामाजिक परिवर्तन में थोड़ा समयलगता है और कभी-कभी कानून लाना आसान होता है, लेकिन समाज को इसके साथ बदलने के लिए राज़ी करना मुश्किल होता है।

सितंबर 2022 में हुई मामले की सुनवाई में जजों ने अनेक तर्क दिए, इंदिरा जयसिंह, कपिल सिब्बल, वी गिरी, दुष्यंत दवे और मीनाक्षी अरोड़ा जैसे सीनियर एडवोकेट्स को इस मामले में न्याय मित्र बनाया गया था। इंदिरा जयसिंह ने कहा था कि पूरी तरह खत्म हो चुके शादी के रिश्तों को संविधान के आर्टिकल 142 के तहत खत्म किया जाना चाहिए। दुष्यंत दवे ने इसके विरोध में तर्क दिया कि जब संसद ने ऐसे मामलों को तलाक का आधार नहीं माना है तो कोर्ट को इसकी अनुमति नहीं देनी चाहिए। वी गिरी ने कहा कि पूरी तरह टूट चुकी शादियों को क्रूरता का आधार माना जा सकता है। कोर्ट इसमें मानसिक क्रूरता को भी शामिल करता है। सिब्बल ने कहा कि मेंटेनेंस और कस्टडी तय करने की प्रक्रिया को तलाक की प्रक्रिया से इतर रखना चाहिए, ताकि महिला व पुरुष को आत्महत्या करने से बचाया जा सके। मीनाक्षी अरोड़ा ने कहा कि आर्टिकल 142 के तहत अपने विशेषाधिकार को लागू करते ही सुप्रीम कोर्ट संवैधानिक कानूनों के दायरे से बाहर आ जाता है। यह आर्टिकल न्याय, बराबरी और अच्छी नीयत वाले विचारों को साकार करता है।

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